मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है


सुना था कभी बचपन में "खुदी को कर इतना बुलंद बन्दे, की हर तकदीर से पहले, खुदा तुझ से पूछे बोल तेरी रजा क्या है" जो लोग सफलता पाने के लिए जद्दोजहद करते रहते हैं ये लाइनें उन पर फिट बैठती हैं. खुद को उसी धारा से जोड़कर चल पड़े हैं, अभी रास्ते में हूँ यही कहना ठीक है. सफलता के चरम को पा सकेंगे ये जुनून है दिल में, अभी इन्तजार है सही वक्त का. जब स्थितियां अनुकूल न हों, तो सही वक्त का इंतजार करना चाहिए, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि आप हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें। मुश्किल वक्त का प्रयोग खुद को मजबूत करने में करना चाहिए। स्लो-डाउन से तो लगभग सभी क्षेत्र प्रभावित हुए हैं, मेरा ये ब्लॉग एक कोशिश है, खुद को, अपने विचारो को दूसरों से विनिमय करने की. आपकी आलोचना भी सह सकता हूँ, क्योंकि मेरा मानना है की हमारे प्यारे आलोचक भी हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं, प्रेरणा देने के लिए बस जरूरत है लेख के धरातल पर टिप्पणी नामक अंगूठा लगाने की. इसी उम्मीद के साथ आपका मेरे ब्लॉग पर स्वागत है.....

मंगलवार, 24 जनवरी 2012

राष्ट्रीय सेना के संस्थापक को शत....शत नमन

सुभाष चन्द्र बोस जयंती 23 जनवरी पर विशेष
आइये इस महान दिवस पर याद करें उस महापुरुष को. जिन्होंने इस दिन जन्म लेकर हम भारतवासियों पर जो उपकार किया उसे हम भुला नहीं सकते, न ही हम भारतवासी उनके दिए उस नारे को भुला सकते हैं "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगा" ये नारा आज भी हमें अपने बचपन की तरह याद रहता है.... उन्होंने सिर्फ नारा ही नहीं दिया बल्कि अपने उस कथन को पूरा भी करके दिखाया और गोरे अंग्रेजों को भारत से पलायन करने को मजबूर कर दिया.... विवश कर दिया. नेताजी सुभाष चन्द्र बोस गुलाम भारतवर्ष को आजाद हिन्दुस्तान बनाकर, हम हिन्दुस्तानियों पर ये अहसान कर न जाने कहाँ गुम हो गए. आज उनका जन्मदिवस है, इसलिए दोस्तों ऐसे महान देशभक्त, भारतवर्ष के सच्चे महानायक, राष्ट्रीय सेना के संस्थापक, आजादी की लड़ाई के निर्भीक, निडर, जांबाज आजाद हिंदुस्तान फ़ौज के निर्माता को 
शत....शत नमन करें, उन्हें याद करें........ 
नाम की महिमा- 
दोस्तों कहते हैं की इंसान को तो बाँध कर तो रखा जा सकता है लेकिन तूफ़ान को बांधना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है.....ऐसे तूफानी शूरवीर थे आजाद बाबू .......१९४० में आजादी से पहले क्रान्तिकारियों ने अंग्रेजों के नाम में दम कर दिया था पर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस तो अंग्रेजों के लिए साक्षात मुसीबत थे। “सुभाष” नाम सुनते ही अंग्रेजों के कान खड़े हो जाते थे, चाहे वह “सुभाष” नाम का व्यक्ति कोई भी क्यों न हो, बस नाम सुनते ही अंग्रेजी प्रशासन अपने सारे अमले को सतर्क कर दिया करता था। “सुभाष” नाम से अंग्रेजों के इतना घबराने का कारण भी था, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने एक नहीं बल्कि अनेक बार भेष बदल कर अंग्रेजी प्रशासन को छकाया था। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के झंडे में न तो गाँधी जी का चरखा होता था न ही अशोक का चक्र. उनके झंडे में शेर की छवि अंकित रहती थी, वास्तव में शेर सा जिगर रखने वाले थे नेताजी...

अगर गाँधी जी मान जाते ......
1938 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हरिपुरा में होने का तय हुआ था। इस अधिवेशन से पहले महात्मा गाँधी ने कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए सुभाषबाबू को चुना। यह कांग्रेस का 51 वां अधिवेशन था। इसलिए कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष चन्द्र बोस का स्वागत 51 बैलों द्वारा खींचे हुए रथ में किया गया था। इस अधिवेशन में सुभाष चन्द्र बोस का अध्यक्षीय भाषण बहुत ही प्रभावी हुआ। किसी भी भारतीय राजकीय व्यक्ती ने शायद ही इतना प्रभावी भाषण कभी दिया हो। खास बात यह है की गाँधीजी ने कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए सुभाषबाबू को चुना तो था, मगर महात्मा गाँधीजी को सुभाष चन्द्र बोस की कार्यपद्धती पसंद नहीं आयी। इसी दौरान युरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल छा गए थे। सुभाषबाबू चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर, भारत का स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र किया जाए। उन्होने अपने अध्यक्ष पद रहते इस तरफ कदम उठाना भी शुरू कर दिया था। गाँधीजी इस विचारधारा से सहमत नहीं थे और उन्होंने उन्हें अध्यक्ष पद से हटा दिया.. साथ ही उनका विकल्प ढूँढने लगे. 1939 में जब नया कांग्रेस अध्यक्ष चुनने का वक्त आया, तब सुभाषबाबू चाहते थे कि कोई ऐसा व्यक्ति अध्यक्ष बनाया जाए, जो इस मामले में किसी दबाव के सामने न झुके। दुर्भाग्य की इस प्रकार का कोई अन्य व्यक्ती सामने न आने पर, सुभाषबाबू ने खुद कांग्रेस अध्यक्ष बने रहना मंशा प्रकट की लेकिन महात्मा गाँधी अब उन्हे अध्यक्ष पद से हटाना चाहते थे। गाँधीजी ने अध्यक्ष पद के लिए पटटाभी सितार मैय्या को चुना। कविवर्य रविंद्रनाथ टैगोर ने महात्मा गाँधी को पत्र लिखकर सुभाषबाबू को ही अध्यक्ष बनाने की अनुनय-विनय की। प्रफुल्लचंद्र राय और मेघनाद सहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाषबाबू को फिर से अध्यक्ष के रूप में देखना चाहतें थे। लेकिन गाँधीजी ने इस मामले में किसी की बात नहीं मानी। वो तो बस अपनी जिद पर अड़े रहे ...... अगर वह अध्यक्ष बना दिए गए होते तो शायद देश की आज यह स्तिथि न होती.....!

जब हिटलर ने माफ़ी मांगी नेताजी से .....!
बर्लिन में सुभाषबाबू सर्वप्रथम रिबेनट्रोप जैसे जर्मनी के अन्य नेताओ से मिले। उन्होने जर्मनी में भारतीय स्वतंत्रता संगठन और आजाद हिंद रेडिओ की स्थापना की। इसी दौरान सुभाषबाबू, नेताजी नाम से जाने जाने लगे। 29 मई, 1942 के दिन, सुभाषबाबू जर्मनी के सर्वोच्च नेता एडॉल्फ हिटलर से मिले। लेकिन हिटलर को भारत के विषय में विशेष रूची नहीं थी। उन्होने सुभाषबाबू को सहायता का कोई स्पष्ट वचन नहीं दिया। उस दौरान हिटलर ने माईन काम्फ नामक अपना आत्मचरित्र आधारित किताब लिखी। इस किताब में हिन्दुस्तानियों और हिन्दुस्तान की आलोचना की गयी थी। इस विषय पर सुभाषबाबू ने हिटलर से अपनी नाराजी व्यक्त की। हिटलर ने अपने किये पर माँफी माँगी और माईन काम्फ की अगली आवृत्ती से वह परिच्छेद निकालने का वचन दिया।

कहाँ तुम चले गए.......
18 अगस्त, 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मांचुरिया की तरफ जा रहे थे। इस सफर के दौरान वे लापता हो गए। इस दिन के बाद वे कभी किसी को दिखाई नहीं दिये। इस दुर्घटना के 5 दिन बाद खबर मिली की नेताजी का हवाई जहाज ताइवान की भूमि पर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था और उस दुर्घटना में बुरी तरह से घायल होकर नेताजी ने अस्पताल में अंतिम साँस ले ली थी।
स्वतंत्रता के पश्चात, भारत सरकार ने इस घटना की जाँच करने के लिए, 1956 और 1977 में दो बार एक आयोग को नियुक्त किया। दोनो बार यह नतिजा निकला की नेताजी उस विमान दुर्घटना में ही मारे गये थे। लेकिन जिस ताइवान की भूमि पर यह दुर्घटना होने की खबर थी, उस ताइवान देश की सरकार से तो, इन दोनो आयोगो ने बात ही नहीं की।
1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बनाया गया। 2005 में ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बता दिया कि 1945 में ताइवान की भूमि पर कोई हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीं था। 2005 में मुखर्जी आयोग ने भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट पेश की, जिस में उन्होने कहा, कि नेताजी की मृत्यु उस विमान दुर्घटना में होने का कोई सबूत नहीं हैं। लेकिन भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया।
18 अगस्त, 1945 के दिन नेताजी कहाँ लापता हो गए और उनका आगे क्या हुआ, यह भारत के इतिहास का सबसे बडा अनुत्तरित रहस्य बन गया हैं। देश के अलग-अलग हिस्सों में आज भी नेताजी को देखने और मिलने का दावा करने वाले लोगों की कमी नहीं है। फैजाबाद के गुमनामी बाबा से लेकर छत्तीसगढ़ के रायगढ़ तक में नेताजी के होने को लेकर कई दावे हुये हैं लेकिन इनमें से सभी की प्रामाणिकता संदिग्ध है। छत्तीसगढ़ में तो सुभाष चंद्र बोस के होने को लेकर मामला राज्य सरकार तक गया। हालांकि राज्य सरकार ने इसे हस्तक्षेप योग्य नहीं मानते हुये मामले की फाइल बंद कर दी।

अफ़सोस की बातें .......
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ‘बोल्‍ड और बेलाग टिप्‍पणी करने वाले शख्‍स थे। यहां तक कि वह महात्‍मा गांधी से भी सवाल कर देते और उन्‍होंने गांधी जी की राय से असहमत होने की हिम्‍मत दिखाई।’ जहाँ तक मुझे जानकारी है हमारी राजधानी दिल्‍ली में कोई भी ऐसी जगह नहीं है जिसका नामकरण नेताजी पर हुआ हो। यह बेहद शर्म और अफ़सोस की बात है की उनके जन्मदिवस पैर राष्ट्रीय छुट्टी भी घोषित नहीं की गई है...! देश की वर्तमान सरकार को इस ओर सकारात्मक कदम उठाने चाहिए ..... ताकि दीर्घकाल तक हमारे इर्द गिर्द और मानस पटल पर नेताजी की यादें जिन्दा रहे ..... जय हिंद ...... जय भारत ....!

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राष्ट्रीय सेना के संस्थापक को शत....शत नमन

सुभाष चन्द्र बोस जयंती 23 जनवरी पर विशेष
आइये इस महान दिवस पर याद करें उस महापुरुष को. जिन्होंने इस दिन जन्म लेकर हम भारतवासियों पर जो उपकार किया उसे हम भुला नहीं सकते, न ही हम भारतवासी उनके दिए उस नारे को भुला सकते हैं "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगा" ये नारा आज भी हमें अपने बचपन की तरह याद रहता है.... उन्होंने सिर्फ नारा ही नहीं दिया बल्कि अपने उस कथन को पूरा भी करके दिखाया और गोरे अंग्रेजों को भारत से पलायन करने को मजबूर कर दिया.... विवश कर दिया. नेताजी सुभाष चन्द्र बोस गुलाम भारतवर्ष को आजाद हिन्दुस्तान बनाकर, हम हिन्दुस्तानियों पर ये अहसान कर न जाने कहाँ गुम हो गए. आज उनका जन्मदिवस है, इसलिए दोस्तों ऐसे महान देशभक्त, भारतवर्ष के सच्चे महानायक, राष्ट्रीय सेना के संस्थापक, आजादी की लड़ाई के निर्भीक, निडर, जांबाज आजाद हिंदुस्तान फ़ौज के निर्माता को 
शत....शत नमन करें, उन्हें याद करें........ 
नाम की महिमा- 
दोस्तों कहते हैं की इंसान को तो बाँध कर तो रखा जा सकता है लेकिन तूफ़ान को बांधना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है.....ऐसे तूफानी शूरवीर थे आजाद बाबू .......१९४० में आजादी से पहले क्रान्तिकारियों ने अंग्रेजों के नाम में दम कर दिया था पर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस तो अंग्रेजों के लिए साक्षात मुसीबत थे। “सुभाष” नाम सुनते ही अंग्रेजों के कान खड़े हो जाते थे, चाहे वह “सुभाष” नाम का व्यक्ति कोई भी क्यों न हो, बस नाम सुनते ही अंग्रेजी प्रशासन अपने सारे अमले को सतर्क कर दिया करता था। “सुभाष” नाम से अंग्रेजों के इतना घबराने का कारण भी था, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने एक नहीं बल्कि अनेक बार भेष बदल कर अंग्रेजी प्रशासन को छकाया था। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के झंडे में न तो गाँधी जी का चरखा होता था न ही अशोक का चक्र. उनके झंडे में शेर की छवि अंकित रहती थी, वास्तव में शेर सा जिगर रखने वाले थे नेताजी...

अगर गाँधी जी मान जाते ......
1938 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हरिपुरा में होने का तय हुआ था। इस अधिवेशन से पहले महात्मा गाँधी ने कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए सुभाषबाबू को चुना। यह कांग्रेस का 51 वां अधिवेशन था। इसलिए कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष चन्द्र बोस का स्वागत 51 बैलों द्वारा खींचे हुए रथ में किया गया था। इस अधिवेशन में सुभाष चन्द्र बोस का अध्यक्षीय भाषण बहुत ही प्रभावी हुआ। किसी भी भारतीय राजकीय व्यक्ती ने शायद ही इतना प्रभावी भाषण कभी दिया हो। खास बात यह है की गाँधीजी ने कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए सुभाषबाबू को चुना तो था, मगर महात्मा गाँधीजी को सुभाष चन्द्र बोस की कार्यपद्धती पसंद नहीं आयी। इसी दौरान युरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल छा गए थे। सुभाषबाबू चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर, भारत का स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र किया जाए। उन्होने अपने अध्यक्ष पद रहते इस तरफ कदम उठाना भी शुरू कर दिया था। गाँधीजी इस विचारधारा से सहमत नहीं थे और उन्होंने उन्हें अध्यक्ष पद से हटा दिया.. साथ ही उनका विकल्प ढूँढने लगे. 1939 में जब नया कांग्रेस अध्यक्ष चुनने का वक्त आया, तब सुभाषबाबू चाहते थे कि कोई ऐसा व्यक्ति अध्यक्ष बनाया जाए, जो इस मामले में किसी दबाव के सामने न झुके। दुर्भाग्य की इस प्रकार का कोई अन्य व्यक्ती सामने न आने पर, सुभाषबाबू ने खुद कांग्रेस अध्यक्ष बने रहना मंशा प्रकट की लेकिन महात्मा गाँधी अब उन्हे अध्यक्ष पद से हटाना चाहते थे। गाँधीजी ने अध्यक्ष पद के लिए पटटाभी सितार मैय्या को चुना। कविवर्य रविंद्रनाथ टैगोर ने महात्मा गाँधी को पत्र लिखकर सुभाषबाबू को ही अध्यक्ष बनाने की अनुनय-विनय की। प्रफुल्लचंद्र राय और मेघनाद सहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाषबाबू को फिर से अध्यक्ष के रूप में देखना चाहतें थे। लेकिन गाँधीजी ने इस मामले में किसी की बात नहीं मानी। वो तो बस अपनी जिद पर अड़े रहे ...... अगर वह अध्यक्ष बना दिए गए होते तो शायद देश की आज यह स्तिथि न होती.....!

जब हिटलर ने माफ़ी मांगी नेताजी से .....!
बर्लिन में सुभाषबाबू सर्वप्रथम रिबेनट्रोप जैसे जर्मनी के अन्य नेताओ से मिले। उन्होने जर्मनी में भारतीय स्वतंत्रता संगठन और आजाद हिंद रेडिओ की स्थापना की। इसी दौरान सुभाषबाबू, नेताजी नाम से जाने जाने लगे। 29 मई, 1942 के दिन, सुभाषबाबू जर्मनी के सर्वोच्च नेता एडॉल्फ हिटलर से मिले। लेकिन हिटलर को भारत के विषय में विशेष रूची नहीं थी। उन्होने सुभाषबाबू को सहायता का कोई स्पष्ट वचन नहीं दिया। उस दौरान हिटलर ने माईन काम्फ नामक अपना आत्मचरित्र आधारित किताब लिखी। इस किताब में हिन्दुस्तानियों और हिन्दुस्तान की आलोचना की गयी थी। इस विषय पर सुभाषबाबू ने हिटलर से अपनी नाराजी व्यक्त की। हिटलर ने अपने किये पर माँफी माँगी और माईन काम्फ की अगली आवृत्ती से वह परिच्छेद निकालने का वचन दिया।

कहाँ तुम चले गए.......
18 अगस्त, 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मांचुरिया की तरफ जा रहे थे। इस सफर के दौरान वे लापता हो गए। इस दिन के बाद वे कभी किसी को दिखाई नहीं दिये। इस दुर्घटना के 5 दिन बाद खबर मिली की नेताजी का हवाई जहाज ताइवान की भूमि पर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था और उस दुर्घटना में बुरी तरह से घायल होकर नेताजी ने अस्पताल में अंतिम साँस ले ली थी।
स्वतंत्रता के पश्चात, भारत सरकार ने इस घटना की जाँच करने के लिए, 1956 और 1977 में दो बार एक आयोग को नियुक्त किया। दोनो बार यह नतिजा निकला की नेताजी उस विमान दुर्घटना में ही मारे गये थे। लेकिन जिस ताइवान की भूमि पर यह दुर्घटना होने की खबर थी, उस ताइवान देश की सरकार से तो, इन दोनो आयोगो ने बात ही नहीं की।
1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बनाया गया। 2005 में ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बता दिया कि 1945 में ताइवान की भूमि पर कोई हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीं था। 2005 में मुखर्जी आयोग ने भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट पेश की, जिस में उन्होने कहा, कि नेताजी की मृत्यु उस विमान दुर्घटना में होने का कोई सबूत नहीं हैं। लेकिन भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया।
18 अगस्त, 1945 के दिन नेताजी कहाँ लापता हो गए और उनका आगे क्या हुआ, यह भारत के इतिहास का सबसे बडा अनुत्तरित रहस्य बन गया हैं। देश के अलग-अलग हिस्सों में आज भी नेताजी को देखने और मिलने का दावा करने वाले लोगों की कमी नहीं है। फैजाबाद के गुमनामी बाबा से लेकर छत्तीसगढ़ के रायगढ़ तक में नेताजी के होने को लेकर कई दावे हुये हैं लेकिन इनमें से सभी की प्रामाणिकता संदिग्ध है। छत्तीसगढ़ में तो सुभाष चंद्र बोस के होने को लेकर मामला राज्य सरकार तक गया। हालांकि राज्य सरकार ने इसे हस्तक्षेप योग्य नहीं मानते हुये मामले की फाइल बंद कर दी।

अफ़सोस की बातें .......
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ‘बोल्‍ड और बेलाग टिप्‍पणी करने वाले शख्‍स थे। यहां तक कि वह महात्‍मा गांधी से भी सवाल कर देते और उन्‍होंने गांधी जी की राय से असहमत होने की हिम्‍मत दिखाई।’ जहाँ तक मुझे जानकारी है हमारी राजधानी दिल्‍ली में कोई भी ऐसी जगह नहीं है जिसका नामकरण नेताजी पर हुआ हो। यह बेहद शर्म और अफ़सोस की बात है की उनके जन्मदिवस पैर राष्ट्रीय छुट्टी भी घोषित नहीं की गई है...! देश की वर्तमान सरकार को इस ओर सकारात्मक कदम उठाने चाहिए ..... ताकि दीर्घकाल तक हमारे इर्द गिर्द और मानस पटल पर नेताजी की यादें जिन्दा रहे ..... जय हिंद ...... जय भारत ....!

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