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सुना था कभी बचपन में "खुदी को कर इतना बुलंद बन्दे, की हर तकदीर से पहले, खुदा तुझ से पूछे बोल तेरी रजा क्या है" जो लोग सफलता पाने के लिए जद्दोजहद करते रहते हैं ये लाइनें उन पर फिट बैठती हैं. खुद को उसी धारा से जोड़कर चल पड़े हैं, अभी रास्ते में हूँ यही कहना ठीक है. सफलता के चरम को पा सकेंगे ये जुनून है दिल में, अभी इन्तजार है सही वक्त का. जब स्थितियां अनुकूल न हों, तो सही वक्त का इंतजार करना चाहिए, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि आप हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें। मुश्किल वक्त का प्रयोग खुद को मजबूत करने में करना चाहिए। स्लो-डाउन से तो लगभग सभी क्षेत्र प्रभावित हुए हैं, मेरा ये ब्लॉग एक कोशिश है, खुद को, अपने विचारो को दूसरों से विनिमय करने की. आपकी आलोचना भी सह सकता हूँ, क्योंकि मेरा मानना है की हमारे प्यारे आलोचक भी हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं, प्रेरणा देने के लिए बस जरूरत है लेख के धरातल पर टिप्पणी नामक अंगूठा लगाने की. इसी उम्मीद के साथ आपका मेरे ब्लॉग पर स्वागत है.....

शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

बहुत याद आते हैं पापा ...!

.....जब भी कोई बात कहते थे, हर बात उनकी जिद लगती थी. जब कभी उनसे सामना होता था उनसे मैं कटा कटा और डरा डरा सा रहता था हर वक्त. मुझसे जो लगाईं थीं उन्होंने, हमेशा उन उम्मीदों से आगे निकलने की कोशिश करते हुए उम्र के ३५ वर्ष कब गुजर गए पता भी नहीं चला. ८२ वर्ष की अवस्था में भी वो उसी तरह जीते थे, जैसा मैंने बचपन में देखा और समझा था. १५ फरवरी २०१२ की वो सुबह मेरी कल्पनाओं से भी परे थी, हर लम्हा और हर पल बचपन की तरह याद आ रहा है, कभी सोचा भी नहीं था की पापा हर पल मुझे याद आयेंगे. वो प्रति क्षण मुझसे दूर हो रहे थे और मैं उनके उतने ही नजदीक. वो आपसी वैचारिक मतभेद उस दिन मुझे कचोट नहीं रहे थे, जो कभी कभी उनसे बात करके मेरे अन्दर पैदा होते थे. उनका हर बात में टोकना, मुझे रोकना, समझाना और उनका इशारा मेरे लिए बस इतनी अहमियत रखता था की वो मेरे सबसे बड़े आलोचक थे, उनकी आलोचना मेरे लिए प्रेरणादायक रही हैं और आगे भी साबित होंगी ये भी मैं बखूबी जानता था. वो शरीर से दुर्बल हो गए थे, लेकिन मन से कभी नहीं. पापा दो बार उपदेशी दयालबाग के कट्टर पुराने सत्संगी थे, शायद यही उनकी सबसे बड़ी जमापूंजी थी. सन १९९२ में रोडवेज से रिटायर्ड जरूर हो गए थे लेकिन दयालबाग/सत्संग प्रेम से रिटायर्ड वो अंतिम सांस तक नहीं हुए. वो उस दिन मुझे पल पल बताना चाह रहे थे की अब वो कुछ समय के .......! हमेशा की तरह उस वक्त भी मुझे उनसे प्रतिवाद करना पड़ा. सर्दी का महीना ऊपर से सर्द हवा लेकिन उन्हें गर्मी का अहसास हो रहा था. उन पर जो गुजर रही थी वही जानते थे, मुझे पर जो गुजर रही थी उसे बयां कर पाना आसान नहीं. दवा देकर आराम करने के लिए मैंने उन्हें बच्चे की तरह डपटते हुए कहा " कुछ देर दवा का असर हो जाने दो, आराम से लेटो, बाहर सर्दी है" उन्होंने मेरा हाथ मजबूती के साथ पकड़ लिया, उनके द्वारा ऐसा करते ही मेरी आँख भर आयीं, आंसू छलक न जाये, मुझे कमजोर होता देखकर पापा का मनोबल टूट ना जाये यही सोचकर, खुद पर काबू पाने के लिए मैं उनसे बस दो पल के लिए मुंह फेर लेना चाहता था. बाहर आया सब कुछ सामान्य था घर के किसी सदस्य को पता भी नहीं था मेरे मनोदशा के बारे में. अपनी ६माह की छोटी बेटी को गोद में लेकर मन बदल रहा था, पर जो चिंतित मन मेरे पिता के इर्दगिर्द मंडरा रहा था वो कैसे दोभागों में बंट सकता था. मेरी नादानी की इन्तेहाँ थी .... मेरा ये सोचना कि मेरे आने के बाद वो आराम कर रहे होंगे, कहीं मेरे दोबारा कमरे में जाने के बाद उनकी आराम में खलल न पड़े, खुद को सामान्य कर लूं, यही सोचकर थोड़ी देर के लिए दूर हो गया था उनसे ठीक दो बजे फिर से कमरे में दाखिल हुआ....... पैर जमीन से चिपक गए थे, आश्चर्य से आँखें फटी रह गईं, अकल्पनीय दृश्य मेरे सामने था.... मैं उनके हर अंदाज से परिचित था.... पर ये कौन सी अवस्था थी.... ? चिल्ला कर रो नहीं सकता था, मेरी मजबूरी थी, बाहर मेरी ७८ वर्षीया माँ बहुत प्यार से मेरी बिटिया को बहला रही थीं. पत्नी घर के कार्यों से निवृत होकर, किसी दूसरे काम की तलाश में थी. क्या करूँ, पहले किसे बताऊँ, क्या कहूँगा, शब्द ख़त्म हो चुके थे, किसी को बताऊंगा तो जुबान लड़खड़ा जाएगी जानता था, बताने से पहले रो पडूंगा ये सोचकर हिम्मत नहीं हुई. मुझे कमरे से बाहर अन्दर होता देख कर माँ ने पूछा "क्या हुआ"? उन्हें देखकर बस रो पड़ा .... ये समयानुकूल इशारा वो समझ गईं और लगभग तेज क़दमों से कमरे में दाखिल हो गयीं .... घर के बाहर लोगों का मजमा लगा था. हर आदमी जानने को उत्सुक था पर मैं किसी को बताना नहीं चाह रहा था की आखिर हुआ क्या है.... जिन्हें बताना मजबूरी थी उन्हें सन्देश देना दुश्वार लग रहा था, कठिन परिस्थिति थी. समयोपरांत उनके पार्थिव शरीर को लेकर हम जाने लगे तो मैं थरथरा रहा था.... मेरे अंदर हिम्मत नहीं है मैंने ऐसा कई बार महसूस किया। सहीं में, पापा के बग़ैर ये सोचकर ही हिम्मत जवाब दे गई थी। मैं फूट फूटकर रो नहीं पा रहा था। जिसका मैं अंश था , उसे ही मैं जलाने जा रहा था। विधि के विधान, दुनिया के इस कुचक्र को मैं समझ नहीं पा रहा था. रीतियों के नाम पर जाने क्या क्या कर गया. कुछ ही दिन ही बीते हैं पर ..... लगता है सदियाँ गुजर गईं उनसे मिले..... उनकी बातें और वह स्वयं मेरे जहन में हैं ...ये कष्टकारी पल जिन्हें उनके बगैर मैं बिता रहा हूँ .... उनकी कमी महसूस करा रहे हैं..... !

बहुत याद आते हैं पापा ...!

.....जब भी कोई बात कहते थे, हर बात उनकी जिद लगती थी. जब कभी उनसे सामना होता था उनसे मैं कटा कटा और डरा डरा सा रहता था हर वक्त. मुझसे जो लगाईं थीं उन्होंने, हमेशा उन उम्मीदों से आगे निकलने की कोशिश करते हुए उम्र के ३५ वर्ष कब गुजर गए पता भी नहीं चला. ८२ वर्ष की अवस्था में भी वो उसी तरह जीते थे, जैसा मैंने बचपन में देखा और समझा था. १५ फरवरी २०१२ की वो सुबह मेरी कल्पनाओं से भी परे थी, हर लम्हा और हर पल बचपन की तरह याद आ रहा है, कभी सोचा भी नहीं था की पापा हर पल मुझे याद आयेंगे. वो प्रति क्षण मुझसे दूर हो रहे थे और मैं उनके उतने ही नजदीक. वो आपसी वैचारिक मतभेद उस दिन मुझे कचोट नहीं रहे थे, जो कभी कभी उनसे बात करके मेरे अन्दर पैदा होते थे. उनका हर बात में टोकना, मुझे रोकना, समझाना और उनका इशारा मेरे लिए बस इतनी अहमियत रखता था की वो मेरे सबसे बड़े आलोचक थे, उनकी आलोचना मेरे लिए प्रेरणादायक रही हैं और आगे भी साबित होंगी ये भी मैं बखूबी जानता था. वो शरीर से दुर्बल हो गए थे, लेकिन मन से कभी नहीं. पापा दो बार उपदेशी दयालबाग के कट्टर पुराने सत्संगी थे, शायद यही उनकी सबसे बड़ी जमापूंजी थी. सन १९९२ में रोडवेज से रिटायर्ड जरूर हो गए थे लेकिन दयालबाग/सत्संग प्रेम से रिटायर्ड वो अंतिम सांस तक नहीं हुए. वो उस दिन मुझे पल पल बताना चाह रहे थे की अब वो कुछ समय के .......! हमेशा की तरह उस वक्त भी मुझे उनसे प्रतिवाद करना पड़ा. सर्दी का महीना ऊपर से सर्द हवा लेकिन उन्हें गर्मी का अहसास हो रहा था. उन पर जो गुजर रही थी वही जानते थे, मुझे पर जो गुजर रही थी उसे बयां कर पाना आसान नहीं. दवा देकर आराम करने के लिए मैंने उन्हें बच्चे की तरह डपटते हुए कहा " कुछ देर दवा का असर हो जाने दो, आराम से लेटो, बाहर सर्दी है" उन्होंने मेरा हाथ मजबूती के साथ पकड़ लिया, उनके द्वारा ऐसा करते ही मेरी आँख भर आयीं, आंसू छलक न जाये, मुझे कमजोर होता देखकर पापा का मनोबल टूट ना जाये यही सोचकर, खुद पर काबू पाने के लिए मैं उनसे बस दो पल के लिए मुंह फेर लेना चाहता था. बाहर आया सब कुछ सामान्य था घर के किसी सदस्य को पता भी नहीं था मेरे मनोदशा के बारे में. अपनी ६माह की छोटी बेटी को गोद में लेकर मन बदल रहा था, पर जो चिंतित मन मेरे पिता के इर्दगिर्द मंडरा रहा था वो कैसे दोभागों में बंट सकता था. मेरी नादानी की इन्तेहाँ थी .... मेरा ये सोचना कि मेरे आने के बाद वो आराम कर रहे होंगे, कहीं मेरे दोबारा कमरे में जाने के बाद उनकी आराम में खलल न पड़े, खुद को सामान्य कर लूं, यही सोचकर थोड़ी देर के लिए दूर हो गया था उनसे ठीक दो बजे फिर से कमरे में दाखिल हुआ....... पैर जमीन से चिपक गए थे, आश्चर्य से आँखें फटी रह गईं, अकल्पनीय दृश्य मेरे सामने था.... मैं उनके हर अंदाज से परिचित था.... पर ये कौन सी अवस्था थी.... ? चिल्ला कर रो नहीं सकता था, मेरी मजबूरी थी, बाहर मेरी ७८ वर्षीया माँ बहुत प्यार से मेरी बिटिया को बहला रही थीं. पत्नी घर के कार्यों से निवृत होकर, किसी दूसरे काम की तलाश में थी. क्या करूँ, पहले किसे बताऊँ, क्या कहूँगा, शब्द ख़त्म हो चुके थे, किसी को बताऊंगा तो जुबान लड़खड़ा जाएगी जानता था, बताने से पहले रो पडूंगा ये सोचकर हिम्मत नहीं हुई. मुझे कमरे से बाहर अन्दर होता देख कर माँ ने पूछा "क्या हुआ"? उन्हें देखकर बस रो पड़ा .... ये समयानुकूल इशारा वो समझ गईं और लगभग तेज क़दमों से कमरे में दाखिल हो गयीं .... घर के बाहर लोगों का मजमा लगा था. हर आदमी जानने को उत्सुक था पर मैं किसी को बताना नहीं चाह रहा था की आखिर हुआ क्या है.... जिन्हें बताना मजबूरी थी उन्हें सन्देश देना दुश्वार लग रहा था, कठिन परिस्थिति थी. समयोपरांत उनके पार्थिव शरीर को लेकर हम जाने लगे तो मैं थरथरा रहा था.... मेरे अंदर हिम्मत नहीं है मैंने ऐसा कई बार महसूस किया। सहीं में, पापा के बग़ैर ये सोचकर ही हिम्मत जवाब दे गई थी। मैं फूट फूटकर रो नहीं पा रहा था। जिसका मैं अंश था , उसे ही मैं जलाने जा रहा था। विधि के विधान, दुनिया के इस कुचक्र को मैं समझ नहीं पा रहा था. रीतियों के नाम पर जाने क्या क्या कर गया. कुछ ही दिन ही बीते हैं पर ..... लगता है सदियाँ गुजर गईं उनसे मिले..... उनकी बातें और वह स्वयं मेरे जहन में हैं ...ये कष्टकारी पल जिन्हें उनके बगैर मैं बिता रहा हूँ .... उनकी कमी महसूस करा रहे हैं..... !