मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है


सुना था कभी बचपन में "खुदी को कर इतना बुलंद बन्दे, की हर तकदीर से पहले, खुदा तुझ से पूछे बोल तेरी रजा क्या है" जो लोग सफलता पाने के लिए जद्दोजहद करते रहते हैं ये लाइनें उन पर फिट बैठती हैं. खुद को उसी धारा से जोड़कर चल पड़े हैं, अभी रास्ते में हूँ यही कहना ठीक है. सफलता के चरम को पा सकेंगे ये जुनून है दिल में, अभी इन्तजार है सही वक्त का. जब स्थितियां अनुकूल न हों, तो सही वक्त का इंतजार करना चाहिए, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि आप हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें। मुश्किल वक्त का प्रयोग खुद को मजबूत करने में करना चाहिए। स्लो-डाउन से तो लगभग सभी क्षेत्र प्रभावित हुए हैं, मेरा ये ब्लॉग एक कोशिश है, खुद को, अपने विचारो को दूसरों से विनिमय करने की. आपकी आलोचना भी सह सकता हूँ, क्योंकि मेरा मानना है की हमारे प्यारे आलोचक भी हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं, प्रेरणा देने के लिए बस जरूरत है लेख के धरातल पर टिप्पणी नामक अंगूठा लगाने की. इसी उम्मीद के साथ आपका मेरे ब्लॉग पर स्वागत है.....

शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

बहुत याद आते हैं पापा ...!

.....जब भी कोई बात कहते थे, हर बात उनकी जिद लगती थी. जब कभी उनसे सामना होता था उनसे मैं कटा कटा और डरा डरा सा रहता था हर वक्त. मुझसे जो लगाईं थीं उन्होंने, हमेशा उन उम्मीदों से आगे निकलने की कोशिश करते हुए उम्र के ३५ वर्ष कब गुजर गए पता भी नहीं चला. ८२ वर्ष की अवस्था में भी वो उसी तरह जीते थे, जैसा मैंने बचपन में देखा और समझा था. १५ फरवरी २०१२ की वो सुबह मेरी कल्पनाओं से भी परे थी, हर लम्हा और हर पल बचपन की तरह याद आ रहा है, कभी सोचा भी नहीं था की पापा हर पल मुझे याद आयेंगे. वो प्रति क्षण मुझसे दूर हो रहे थे और मैं उनके उतने ही नजदीक. वो आपसी वैचारिक मतभेद उस दिन मुझे कचोट नहीं रहे थे, जो कभी कभी उनसे बात करके मेरे अन्दर पैदा होते थे. उनका हर बात में टोकना, मुझे रोकना, समझाना और उनका इशारा मेरे लिए बस इतनी अहमियत रखता था की वो मेरे सबसे बड़े आलोचक थे, उनकी आलोचना मेरे लिए प्रेरणादायक रही हैं और आगे भी साबित होंगी ये भी मैं बखूबी जानता था. वो शरीर से दुर्बल हो गए थे, लेकिन मन से कभी नहीं. पापा दो बार उपदेशी दयालबाग के कट्टर पुराने सत्संगी थे, शायद यही उनकी सबसे बड़ी जमापूंजी थी. सन १९९२ में रोडवेज से रिटायर्ड जरूर हो गए थे लेकिन दयालबाग/सत्संग प्रेम से रिटायर्ड वो अंतिम सांस तक नहीं हुए. वो उस दिन मुझे पल पल बताना चाह रहे थे की अब वो कुछ समय के .......! हमेशा की तरह उस वक्त भी मुझे उनसे प्रतिवाद करना पड़ा. सर्दी का महीना ऊपर से सर्द हवा लेकिन उन्हें गर्मी का अहसास हो रहा था. उन पर जो गुजर रही थी वही जानते थे, मुझे पर जो गुजर रही थी उसे बयां कर पाना आसान नहीं. दवा देकर आराम करने के लिए मैंने उन्हें बच्चे की तरह डपटते हुए कहा " कुछ देर दवा का असर हो जाने दो, आराम से लेटो, बाहर सर्दी है" उन्होंने मेरा हाथ मजबूती के साथ पकड़ लिया, उनके द्वारा ऐसा करते ही मेरी आँख भर आयीं, आंसू छलक न जाये, मुझे कमजोर होता देखकर पापा का मनोबल टूट ना जाये यही सोचकर, खुद पर काबू पाने के लिए मैं उनसे बस दो पल के लिए मुंह फेर लेना चाहता था. बाहर आया सब कुछ सामान्य था घर के किसी सदस्य को पता भी नहीं था मेरे मनोदशा के बारे में. अपनी ६माह की छोटी बेटी को गोद में लेकर मन बदल रहा था, पर जो चिंतित मन मेरे पिता के इर्दगिर्द मंडरा रहा था वो कैसे दोभागों में बंट सकता था. मेरी नादानी की इन्तेहाँ थी .... मेरा ये सोचना कि मेरे आने के बाद वो आराम कर रहे होंगे, कहीं मेरे दोबारा कमरे में जाने के बाद उनकी आराम में खलल न पड़े, खुद को सामान्य कर लूं, यही सोचकर थोड़ी देर के लिए दूर हो गया था उनसे ठीक दो बजे फिर से कमरे में दाखिल हुआ....... पैर जमीन से चिपक गए थे, आश्चर्य से आँखें फटी रह गईं, अकल्पनीय दृश्य मेरे सामने था.... मैं उनके हर अंदाज से परिचित था.... पर ये कौन सी अवस्था थी.... ? चिल्ला कर रो नहीं सकता था, मेरी मजबूरी थी, बाहर मेरी ७८ वर्षीया माँ बहुत प्यार से मेरी बिटिया को बहला रही थीं. पत्नी घर के कार्यों से निवृत होकर, किसी दूसरे काम की तलाश में थी. क्या करूँ, पहले किसे बताऊँ, क्या कहूँगा, शब्द ख़त्म हो चुके थे, किसी को बताऊंगा तो जुबान लड़खड़ा जाएगी जानता था, बताने से पहले रो पडूंगा ये सोचकर हिम्मत नहीं हुई. मुझे कमरे से बाहर अन्दर होता देख कर माँ ने पूछा "क्या हुआ"? उन्हें देखकर बस रो पड़ा .... ये समयानुकूल इशारा वो समझ गईं और लगभग तेज क़दमों से कमरे में दाखिल हो गयीं .... घर के बाहर लोगों का मजमा लगा था. हर आदमी जानने को उत्सुक था पर मैं किसी को बताना नहीं चाह रहा था की आखिर हुआ क्या है.... जिन्हें बताना मजबूरी थी उन्हें सन्देश देना दुश्वार लग रहा था, कठिन परिस्थिति थी. समयोपरांत उनके पार्थिव शरीर को लेकर हम जाने लगे तो मैं थरथरा रहा था.... मेरे अंदर हिम्मत नहीं है मैंने ऐसा कई बार महसूस किया। सहीं में, पापा के बग़ैर ये सोचकर ही हिम्मत जवाब दे गई थी। मैं फूट फूटकर रो नहीं पा रहा था। जिसका मैं अंश था , उसे ही मैं जलाने जा रहा था। विधि के विधान, दुनिया के इस कुचक्र को मैं समझ नहीं पा रहा था. रीतियों के नाम पर जाने क्या क्या कर गया. कुछ ही दिन ही बीते हैं पर ..... लगता है सदियाँ गुजर गईं उनसे मिले..... उनकी बातें और वह स्वयं मेरे जहन में हैं ...ये कष्टकारी पल जिन्हें उनके बगैर मैं बिता रहा हूँ .... उनकी कमी महसूस करा रहे हैं..... !

रविवार, 29 जनवरी 2012

भारत के सुन्दर शिल्पकार महात्मा गांधी

  1. दोस्तों इस धरती पर अनेकों वीर और महापुरुष ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने अपने देश प्रेम को सर्वोपरि रखते हुए भारत की इस पावन भूमि पर जन्म लिया तो भारतमाता का क़र्ज़ उतारने के लिए, उसे गुलामी की जंजीरों से आजाद कराने के लिए अपनी जान तक देश पर कुर्बान कर दी। यदि उन्होंने भारतवासियों के लिए कार्य किया तो इसका पहला कारण तो यह था कि उन्होंने इस पावन भूमि पर जन्म लिया, और दूसरा प्रमुख कारण उनकी मानव जाति के लिए मानवता की रक्षा करने वाली भावना थी। ऐसे ही भारतमाता के सपूत, एक महान संत, पावन आत्मा, साधारण होते हुए भी असाधारण थे महात्मा गांधी ३० जनवरी को उनकी पुण्यतिथि के अवसर आइये उन्हें याद करें-


जीवन भर सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलते रहने वाले भारत के सुन्दर शिल्पकार महात्मा गांधी का जन्म हुआ, तब देश में अंग्रेजी हुकूमत का साम्राज्य था। हालाँकि देश के लिए हजारों-लाखों वीरों ने आजादी की उड़ान भरने के लिए अपनी आहुतियाँ दीं, उन अमर शहीद क्रांतिवीरों की क्रांति ने ब्रिटिश सत्ता को हिलाने का भरकस प्रयास किया था, परंतु अंग्रेजी शक्ति ने उस विद्रोह को कुचल कर रख दिया। अंग्रेजो के कठोर शासन में भारतीय जनमानस छटपटा रहा था। अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए अंग्रेज किसी भी हद तक अत्याचार करने के लिए स्वतंत्र थे। देश की नई पीढ़ी के जन्म लेते ही, गोरे अंग्रेजों तानाशाही और हुकूमत गुलामी की जंजीरों से उन्हें जकड़ रही थी। लगभग डेढ़ दशक तक अंग्रेजों ने हिन्दुस्तान को अपने पूर्वजों की जागीर समझकर देश पर एकछत्र राज्य किया।


देश की बेआवाज जनता को आवाज देने वाले मोहनदास करमचंद गाँधी को लोगों का अटूट प्यार मिला। हमारे देश के इतिहास में युगों-युगों तक इस महात्मा का आजादी के लिए योगदान सदैव याद रखा जायेगा। सत्य की शक्ति द्वारा उन्होंने सारी बाधाओं पर विजय प्राप्त की और अंत में सफलता सफलता के चरम पर पहुँचकर ही दम लिया। गांधीजी ने यह सिद्ध कर दिखाया कि दृढ़ निश्चय, सच्ची लगन और अथक प्रयास से असंभव को भी संभव बनाया जा सकता है । उनका संपूर्ण जीवन एक साधना थी, तपस्या थी। जब गांधीजी की मृत्यु हुई थी, तब तक देश पूरी तरह से आजाद हो चुका था, हमारे सामने नीला आकाश बाहें फैलाये कह रहा था- काली अंधियारी गुलामी की रातें ढल चुकी हैं, आज से तुम आजाद हो, स्वतंत्र हो, तुम्हें उन गोरे अंग्रेजों से, उनके अत्याचारों से हमेशा-हमेशा के लिए छुटकारा मिल चुका है। इतिहास के पन्नों में मोहनदास का नाम और महात्मा का योगदान स्वर्णाक्षरों में लिखा गया। गांधीजी का जीवन एक आदर्श जीवन माना गया। उनके योगदान के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए देशवासियों ने उन्हें 'राष्ट्रपिता' की उपाधी दी।
भले ही कुछ वर्ग आज भी गांधी जी की नीतियों से असंतुष्ट रहता है लेकिन दोस्तों....स्वतंत्रता संग्राम में गांधीजी के योगदान को भुला पाना आसान नहीं है । ब्रिटिश हुकूमत को छठी का दूध याद दिलाने वाले, दांडी यात्रा करने वाले इस महात्मा के कार्य मील का पत्थर साबित हुए। देशवासियों और जांबाज क्रांतिवीरों के सहयोग से उन्होंने अंग्रेजों की गुलामी से स्वतंत्रता का वह सपना सच कर दिखाया, जिसे भारत के प्रत्येक घर में देखा जाता था। महात्मा गाँधी का जन्म भारत की इस पावन धरा पर शायद अपने देश और भारतवासियों के लिए ही हुआ था। बापू ने अपने लिए नहीं बल्कि हमेशा दूसरों के लिए ही संघर्षशील रहे। क्रमवार अंग्रेजी शासन के भारत भूमि से पांव उखाड़ने वाले गांधी ने भारतवर्ष और उसके नागरिकों के लिए अपना बलिदान भी दे दिया। 


सत्य को ईश्वर मानने वाले इस महात्मा की जीवनी किसी धार्मिक ग्रन्थ से कम नहीं है। वैसे भी माना तो यही जाता है कि कोई व्यक्ति जन्म से महान नहीं होता, कर्म के आधार पर ही व्यक्ति महान बनता है, इसे गांधीजी ने सिद्ध कर दिखाया। एक बात और वे कोई असाधारण प्रतिभा के धनी नहीं थे। सामान्य लोगों की तरह वे भी साधारण मनुष्य थे । रवींद्रनाथ टागोर, रामकृष्ण परमहंस, शंकराचार्य या स्वामी विवेकानंद जैसी कोई असाधारण मानव वाली विशेषता गांधीजी के पास नहीं थी । वे एक सामान्य बालक की तरह जन्मे थे। उन्होंने सत्य, प्रेम और अंहिंसा के मार्ग पर चलकर यह संदेश दिया कि आदर्श जीवन ही व्यक्ति को महान बनाता है ।


सचमुच गांधीजी साधारण होते हुए भी असाधारण थे। यह हमारे लिए, भारतवासियों के लिए, हिन्दुस्तानियों के लिए गौरव की बात है कि राष्ट्रपिता महात्मा जैसा व्यक्तित्व बस हमारे ही देश हिन्दुस्तान में जन्मा अन्य किसी देश में नहीं। 1921 में भारतीय राजनीति के फलक पर सूर्य बनकर चमके गांधीजी की आभा से आज भी हमारी धरती का रूप निखर रहा है। उनके विचारों की सुनहरी किरणें विश्व के कोने-कोने में रोशनी बिखेर रही हैं। अगर हम ये भी मान लें की महात्मा गाँधी ने जो किया वो इस देश के लिए पर्याप्त नहीं लेकिन मित्रों.... उन्होंने लेकिन जो भी किया उसे साथ लिए बिना भारतीय आजादी के लिए स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास हम अपनी आपने वाली पीढ़ी को सुना नहीं सकते समझा नहीं सकते। आज हमारा दुर्भाग्य है की गाँधी को अपना प्रेरणास्रोत मानने वाले, उनके बताये रास्ते का अनुसरण कर गोरे अंग्रेजों से भी कही ज्यादा दुष्ट, देश को खोखला कर देने वाले भ्रष्टाचार के खिलाफ अलख जगाने वाले अन्ना हजारे को आलोचना करने वाले चन्द सत्ताधारियों की कूटनीतिकरण का शिकार होना पड़ा..... हे राम ....!


रघुपति राघव राजा राम, पतित पावन सीताराम ...!
ईश्वर, अल्लाह तेरो नाम, सबको सम्मति दे भगवान् ..!

- आपका रतन प्रकाश

मंगलवार, 24 जनवरी 2012

राष्ट्रीय सेना के संस्थापक को शत....शत नमन

सुभाष चन्द्र बोस जयंती 23 जनवरी पर विशेष
आइये इस महान दिवस पर याद करें उस महापुरुष को. जिन्होंने इस दिन जन्म लेकर हम भारतवासियों पर जो उपकार किया उसे हम भुला नहीं सकते, न ही हम भारतवासी उनके दिए उस नारे को भुला सकते हैं "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगा" ये नारा आज भी हमें अपने बचपन की तरह याद रहता है.... उन्होंने सिर्फ नारा ही नहीं दिया बल्कि अपने उस कथन को पूरा भी करके दिखाया और गोरे अंग्रेजों को भारत से पलायन करने को मजबूर कर दिया.... विवश कर दिया. नेताजी सुभाष चन्द्र बोस गुलाम भारतवर्ष को आजाद हिन्दुस्तान बनाकर, हम हिन्दुस्तानियों पर ये अहसान कर न जाने कहाँ गुम हो गए. आज उनका जन्मदिवस है, इसलिए दोस्तों ऐसे महान देशभक्त, भारतवर्ष के सच्चे महानायक, राष्ट्रीय सेना के संस्थापक, आजादी की लड़ाई के निर्भीक, निडर, जांबाज आजाद हिंदुस्तान फ़ौज के निर्माता को 
शत....शत नमन करें, उन्हें याद करें........ 
नाम की महिमा- 
दोस्तों कहते हैं की इंसान को तो बाँध कर तो रखा जा सकता है लेकिन तूफ़ान को बांधना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है.....ऐसे तूफानी शूरवीर थे आजाद बाबू .......१९४० में आजादी से पहले क्रान्तिकारियों ने अंग्रेजों के नाम में दम कर दिया था पर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस तो अंग्रेजों के लिए साक्षात मुसीबत थे। “सुभाष” नाम सुनते ही अंग्रेजों के कान खड़े हो जाते थे, चाहे वह “सुभाष” नाम का व्यक्ति कोई भी क्यों न हो, बस नाम सुनते ही अंग्रेजी प्रशासन अपने सारे अमले को सतर्क कर दिया करता था। “सुभाष” नाम से अंग्रेजों के इतना घबराने का कारण भी था, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने एक नहीं बल्कि अनेक बार भेष बदल कर अंग्रेजी प्रशासन को छकाया था। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के झंडे में न तो गाँधी जी का चरखा होता था न ही अशोक का चक्र. उनके झंडे में शेर की छवि अंकित रहती थी, वास्तव में शेर सा जिगर रखने वाले थे नेताजी...

अगर गाँधी जी मान जाते ......
1938 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हरिपुरा में होने का तय हुआ था। इस अधिवेशन से पहले महात्मा गाँधी ने कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए सुभाषबाबू को चुना। यह कांग्रेस का 51 वां अधिवेशन था। इसलिए कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष चन्द्र बोस का स्वागत 51 बैलों द्वारा खींचे हुए रथ में किया गया था। इस अधिवेशन में सुभाष चन्द्र बोस का अध्यक्षीय भाषण बहुत ही प्रभावी हुआ। किसी भी भारतीय राजकीय व्यक्ती ने शायद ही इतना प्रभावी भाषण कभी दिया हो। खास बात यह है की गाँधीजी ने कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए सुभाषबाबू को चुना तो था, मगर महात्मा गाँधीजी को सुभाष चन्द्र बोस की कार्यपद्धती पसंद नहीं आयी। इसी दौरान युरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल छा गए थे। सुभाषबाबू चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर, भारत का स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र किया जाए। उन्होने अपने अध्यक्ष पद रहते इस तरफ कदम उठाना भी शुरू कर दिया था। गाँधीजी इस विचारधारा से सहमत नहीं थे और उन्होंने उन्हें अध्यक्ष पद से हटा दिया.. साथ ही उनका विकल्प ढूँढने लगे. 1939 में जब नया कांग्रेस अध्यक्ष चुनने का वक्त आया, तब सुभाषबाबू चाहते थे कि कोई ऐसा व्यक्ति अध्यक्ष बनाया जाए, जो इस मामले में किसी दबाव के सामने न झुके। दुर्भाग्य की इस प्रकार का कोई अन्य व्यक्ती सामने न आने पर, सुभाषबाबू ने खुद कांग्रेस अध्यक्ष बने रहना मंशा प्रकट की लेकिन महात्मा गाँधी अब उन्हे अध्यक्ष पद से हटाना चाहते थे। गाँधीजी ने अध्यक्ष पद के लिए पटटाभी सितार मैय्या को चुना। कविवर्य रविंद्रनाथ टैगोर ने महात्मा गाँधी को पत्र लिखकर सुभाषबाबू को ही अध्यक्ष बनाने की अनुनय-विनय की। प्रफुल्लचंद्र राय और मेघनाद सहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाषबाबू को फिर से अध्यक्ष के रूप में देखना चाहतें थे। लेकिन गाँधीजी ने इस मामले में किसी की बात नहीं मानी। वो तो बस अपनी जिद पर अड़े रहे ...... अगर वह अध्यक्ष बना दिए गए होते तो शायद देश की आज यह स्तिथि न होती.....!

जब हिटलर ने माफ़ी मांगी नेताजी से .....!
बर्लिन में सुभाषबाबू सर्वप्रथम रिबेनट्रोप जैसे जर्मनी के अन्य नेताओ से मिले। उन्होने जर्मनी में भारतीय स्वतंत्रता संगठन और आजाद हिंद रेडिओ की स्थापना की। इसी दौरान सुभाषबाबू, नेताजी नाम से जाने जाने लगे। 29 मई, 1942 के दिन, सुभाषबाबू जर्मनी के सर्वोच्च नेता एडॉल्फ हिटलर से मिले। लेकिन हिटलर को भारत के विषय में विशेष रूची नहीं थी। उन्होने सुभाषबाबू को सहायता का कोई स्पष्ट वचन नहीं दिया। उस दौरान हिटलर ने माईन काम्फ नामक अपना आत्मचरित्र आधारित किताब लिखी। इस किताब में हिन्दुस्तानियों और हिन्दुस्तान की आलोचना की गयी थी। इस विषय पर सुभाषबाबू ने हिटलर से अपनी नाराजी व्यक्त की। हिटलर ने अपने किये पर माँफी माँगी और माईन काम्फ की अगली आवृत्ती से वह परिच्छेद निकालने का वचन दिया।

कहाँ तुम चले गए.......
18 अगस्त, 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मांचुरिया की तरफ जा रहे थे। इस सफर के दौरान वे लापता हो गए। इस दिन के बाद वे कभी किसी को दिखाई नहीं दिये। इस दुर्घटना के 5 दिन बाद खबर मिली की नेताजी का हवाई जहाज ताइवान की भूमि पर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था और उस दुर्घटना में बुरी तरह से घायल होकर नेताजी ने अस्पताल में अंतिम साँस ले ली थी।
स्वतंत्रता के पश्चात, भारत सरकार ने इस घटना की जाँच करने के लिए, 1956 और 1977 में दो बार एक आयोग को नियुक्त किया। दोनो बार यह नतिजा निकला की नेताजी उस विमान दुर्घटना में ही मारे गये थे। लेकिन जिस ताइवान की भूमि पर यह दुर्घटना होने की खबर थी, उस ताइवान देश की सरकार से तो, इन दोनो आयोगो ने बात ही नहीं की।
1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बनाया गया। 2005 में ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बता दिया कि 1945 में ताइवान की भूमि पर कोई हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीं था। 2005 में मुखर्जी आयोग ने भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट पेश की, जिस में उन्होने कहा, कि नेताजी की मृत्यु उस विमान दुर्घटना में होने का कोई सबूत नहीं हैं। लेकिन भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया।
18 अगस्त, 1945 के दिन नेताजी कहाँ लापता हो गए और उनका आगे क्या हुआ, यह भारत के इतिहास का सबसे बडा अनुत्तरित रहस्य बन गया हैं। देश के अलग-अलग हिस्सों में आज भी नेताजी को देखने और मिलने का दावा करने वाले लोगों की कमी नहीं है। फैजाबाद के गुमनामी बाबा से लेकर छत्तीसगढ़ के रायगढ़ तक में नेताजी के होने को लेकर कई दावे हुये हैं लेकिन इनमें से सभी की प्रामाणिकता संदिग्ध है। छत्तीसगढ़ में तो सुभाष चंद्र बोस के होने को लेकर मामला राज्य सरकार तक गया। हालांकि राज्य सरकार ने इसे हस्तक्षेप योग्य नहीं मानते हुये मामले की फाइल बंद कर दी।

अफ़सोस की बातें .......
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ‘बोल्‍ड और बेलाग टिप्‍पणी करने वाले शख्‍स थे। यहां तक कि वह महात्‍मा गांधी से भी सवाल कर देते और उन्‍होंने गांधी जी की राय से असहमत होने की हिम्‍मत दिखाई।’ जहाँ तक मुझे जानकारी है हमारी राजधानी दिल्‍ली में कोई भी ऐसी जगह नहीं है जिसका नामकरण नेताजी पर हुआ हो। यह बेहद शर्म और अफ़सोस की बात है की उनके जन्मदिवस पैर राष्ट्रीय छुट्टी भी घोषित नहीं की गई है...! देश की वर्तमान सरकार को इस ओर सकारात्मक कदम उठाने चाहिए ..... ताकि दीर्घकाल तक हमारे इर्द गिर्द और मानस पटल पर नेताजी की यादें जिन्दा रहे ..... जय हिंद ...... जय भारत ....!

बहुत याद आते हैं पापा ...!

.....जब भी कोई बात कहते थे, हर बात उनकी जिद लगती थी. जब कभी उनसे सामना होता था उनसे मैं कटा कटा और डरा डरा सा रहता था हर वक्त. मुझसे जो लगाईं थीं उन्होंने, हमेशा उन उम्मीदों से आगे निकलने की कोशिश करते हुए उम्र के ३५ वर्ष कब गुजर गए पता भी नहीं चला. ८२ वर्ष की अवस्था में भी वो उसी तरह जीते थे, जैसा मैंने बचपन में देखा और समझा था. १५ फरवरी २०१२ की वो सुबह मेरी कल्पनाओं से भी परे थी, हर लम्हा और हर पल बचपन की तरह याद आ रहा है, कभी सोचा भी नहीं था की पापा हर पल मुझे याद आयेंगे. वो प्रति क्षण मुझसे दूर हो रहे थे और मैं उनके उतने ही नजदीक. वो आपसी वैचारिक मतभेद उस दिन मुझे कचोट नहीं रहे थे, जो कभी कभी उनसे बात करके मेरे अन्दर पैदा होते थे. उनका हर बात में टोकना, मुझे रोकना, समझाना और उनका इशारा मेरे लिए बस इतनी अहमियत रखता था की वो मेरे सबसे बड़े आलोचक थे, उनकी आलोचना मेरे लिए प्रेरणादायक रही हैं और आगे भी साबित होंगी ये भी मैं बखूबी जानता था. वो शरीर से दुर्बल हो गए थे, लेकिन मन से कभी नहीं. पापा दो बार उपदेशी दयालबाग के कट्टर पुराने सत्संगी थे, शायद यही उनकी सबसे बड़ी जमापूंजी थी. सन १९९२ में रोडवेज से रिटायर्ड जरूर हो गए थे लेकिन दयालबाग/सत्संग प्रेम से रिटायर्ड वो अंतिम सांस तक नहीं हुए. वो उस दिन मुझे पल पल बताना चाह रहे थे की अब वो कुछ समय के .......! हमेशा की तरह उस वक्त भी मुझे उनसे प्रतिवाद करना पड़ा. सर्दी का महीना ऊपर से सर्द हवा लेकिन उन्हें गर्मी का अहसास हो रहा था. उन पर जो गुजर रही थी वही जानते थे, मुझे पर जो गुजर रही थी उसे बयां कर पाना आसान नहीं. दवा देकर आराम करने के लिए मैंने उन्हें बच्चे की तरह डपटते हुए कहा " कुछ देर दवा का असर हो जाने दो, आराम से लेटो, बाहर सर्दी है" उन्होंने मेरा हाथ मजबूती के साथ पकड़ लिया, उनके द्वारा ऐसा करते ही मेरी आँख भर आयीं, आंसू छलक न जाये, मुझे कमजोर होता देखकर पापा का मनोबल टूट ना जाये यही सोचकर, खुद पर काबू पाने के लिए मैं उनसे बस दो पल के लिए मुंह फेर लेना चाहता था. बाहर आया सब कुछ सामान्य था घर के किसी सदस्य को पता भी नहीं था मेरे मनोदशा के बारे में. अपनी ६माह की छोटी बेटी को गोद में लेकर मन बदल रहा था, पर जो चिंतित मन मेरे पिता के इर्दगिर्द मंडरा रहा था वो कैसे दोभागों में बंट सकता था. मेरी नादानी की इन्तेहाँ थी .... मेरा ये सोचना कि मेरे आने के बाद वो आराम कर रहे होंगे, कहीं मेरे दोबारा कमरे में जाने के बाद उनकी आराम में खलल न पड़े, खुद को सामान्य कर लूं, यही सोचकर थोड़ी देर के लिए दूर हो गया था उनसे ठीक दो बजे फिर से कमरे में दाखिल हुआ....... पैर जमीन से चिपक गए थे, आश्चर्य से आँखें फटी रह गईं, अकल्पनीय दृश्य मेरे सामने था.... मैं उनके हर अंदाज से परिचित था.... पर ये कौन सी अवस्था थी.... ? चिल्ला कर रो नहीं सकता था, मेरी मजबूरी थी, बाहर मेरी ७८ वर्षीया माँ बहुत प्यार से मेरी बिटिया को बहला रही थीं. पत्नी घर के कार्यों से निवृत होकर, किसी दूसरे काम की तलाश में थी. क्या करूँ, पहले किसे बताऊँ, क्या कहूँगा, शब्द ख़त्म हो चुके थे, किसी को बताऊंगा तो जुबान लड़खड़ा जाएगी जानता था, बताने से पहले रो पडूंगा ये सोचकर हिम्मत नहीं हुई. मुझे कमरे से बाहर अन्दर होता देख कर माँ ने पूछा "क्या हुआ"? उन्हें देखकर बस रो पड़ा .... ये समयानुकूल इशारा वो समझ गईं और लगभग तेज क़दमों से कमरे में दाखिल हो गयीं .... घर के बाहर लोगों का मजमा लगा था. हर आदमी जानने को उत्सुक था पर मैं किसी को बताना नहीं चाह रहा था की आखिर हुआ क्या है.... जिन्हें बताना मजबूरी थी उन्हें सन्देश देना दुश्वार लग रहा था, कठिन परिस्थिति थी. समयोपरांत उनके पार्थिव शरीर को लेकर हम जाने लगे तो मैं थरथरा रहा था.... मेरे अंदर हिम्मत नहीं है मैंने ऐसा कई बार महसूस किया। सहीं में, पापा के बग़ैर ये सोचकर ही हिम्मत जवाब दे गई थी। मैं फूट फूटकर रो नहीं पा रहा था। जिसका मैं अंश था , उसे ही मैं जलाने जा रहा था। विधि के विधान, दुनिया के इस कुचक्र को मैं समझ नहीं पा रहा था. रीतियों के नाम पर जाने क्या क्या कर गया. कुछ ही दिन ही बीते हैं पर ..... लगता है सदियाँ गुजर गईं उनसे मिले..... उनकी बातें और वह स्वयं मेरे जहन में हैं ...ये कष्टकारी पल जिन्हें उनके बगैर मैं बिता रहा हूँ .... उनकी कमी महसूस करा रहे हैं..... !

भारत के सुन्दर शिल्पकार महात्मा गांधी

  1. दोस्तों इस धरती पर अनेकों वीर और महापुरुष ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने अपने देश प्रेम को सर्वोपरि रखते हुए भारत की इस पावन भूमि पर जन्म लिया तो भारतमाता का क़र्ज़ उतारने के लिए, उसे गुलामी की जंजीरों से आजाद कराने के लिए अपनी जान तक देश पर कुर्बान कर दी। यदि उन्होंने भारतवासियों के लिए कार्य किया तो इसका पहला कारण तो यह था कि उन्होंने इस पावन भूमि पर जन्म लिया, और दूसरा प्रमुख कारण उनकी मानव जाति के लिए मानवता की रक्षा करने वाली भावना थी। ऐसे ही भारतमाता के सपूत, एक महान संत, पावन आत्मा, साधारण होते हुए भी असाधारण थे महात्मा गांधी ३० जनवरी को उनकी पुण्यतिथि के अवसर आइये उन्हें याद करें-


जीवन भर सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलते रहने वाले भारत के सुन्दर शिल्पकार महात्मा गांधी का जन्म हुआ, तब देश में अंग्रेजी हुकूमत का साम्राज्य था। हालाँकि देश के लिए हजारों-लाखों वीरों ने आजादी की उड़ान भरने के लिए अपनी आहुतियाँ दीं, उन अमर शहीद क्रांतिवीरों की क्रांति ने ब्रिटिश सत्ता को हिलाने का भरकस प्रयास किया था, परंतु अंग्रेजी शक्ति ने उस विद्रोह को कुचल कर रख दिया। अंग्रेजो के कठोर शासन में भारतीय जनमानस छटपटा रहा था। अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए अंग्रेज किसी भी हद तक अत्याचार करने के लिए स्वतंत्र थे। देश की नई पीढ़ी के जन्म लेते ही, गोरे अंग्रेजों तानाशाही और हुकूमत गुलामी की जंजीरों से उन्हें जकड़ रही थी। लगभग डेढ़ दशक तक अंग्रेजों ने हिन्दुस्तान को अपने पूर्वजों की जागीर समझकर देश पर एकछत्र राज्य किया।


देश की बेआवाज जनता को आवाज देने वाले मोहनदास करमचंद गाँधी को लोगों का अटूट प्यार मिला। हमारे देश के इतिहास में युगों-युगों तक इस महात्मा का आजादी के लिए योगदान सदैव याद रखा जायेगा। सत्य की शक्ति द्वारा उन्होंने सारी बाधाओं पर विजय प्राप्त की और अंत में सफलता सफलता के चरम पर पहुँचकर ही दम लिया। गांधीजी ने यह सिद्ध कर दिखाया कि दृढ़ निश्चय, सच्ची लगन और अथक प्रयास से असंभव को भी संभव बनाया जा सकता है । उनका संपूर्ण जीवन एक साधना थी, तपस्या थी। जब गांधीजी की मृत्यु हुई थी, तब तक देश पूरी तरह से आजाद हो चुका था, हमारे सामने नीला आकाश बाहें फैलाये कह रहा था- काली अंधियारी गुलामी की रातें ढल चुकी हैं, आज से तुम आजाद हो, स्वतंत्र हो, तुम्हें उन गोरे अंग्रेजों से, उनके अत्याचारों से हमेशा-हमेशा के लिए छुटकारा मिल चुका है। इतिहास के पन्नों में मोहनदास का नाम और महात्मा का योगदान स्वर्णाक्षरों में लिखा गया। गांधीजी का जीवन एक आदर्श जीवन माना गया। उनके योगदान के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए देशवासियों ने उन्हें 'राष्ट्रपिता' की उपाधी दी।
भले ही कुछ वर्ग आज भी गांधी जी की नीतियों से असंतुष्ट रहता है लेकिन दोस्तों....स्वतंत्रता संग्राम में गांधीजी के योगदान को भुला पाना आसान नहीं है । ब्रिटिश हुकूमत को छठी का दूध याद दिलाने वाले, दांडी यात्रा करने वाले इस महात्मा के कार्य मील का पत्थर साबित हुए। देशवासियों और जांबाज क्रांतिवीरों के सहयोग से उन्होंने अंग्रेजों की गुलामी से स्वतंत्रता का वह सपना सच कर दिखाया, जिसे भारत के प्रत्येक घर में देखा जाता था। महात्मा गाँधी का जन्म भारत की इस पावन धरा पर शायद अपने देश और भारतवासियों के लिए ही हुआ था। बापू ने अपने लिए नहीं बल्कि हमेशा दूसरों के लिए ही संघर्षशील रहे। क्रमवार अंग्रेजी शासन के भारत भूमि से पांव उखाड़ने वाले गांधी ने भारतवर्ष और उसके नागरिकों के लिए अपना बलिदान भी दे दिया। 


सत्य को ईश्वर मानने वाले इस महात्मा की जीवनी किसी धार्मिक ग्रन्थ से कम नहीं है। वैसे भी माना तो यही जाता है कि कोई व्यक्ति जन्म से महान नहीं होता, कर्म के आधार पर ही व्यक्ति महान बनता है, इसे गांधीजी ने सिद्ध कर दिखाया। एक बात और वे कोई असाधारण प्रतिभा के धनी नहीं थे। सामान्य लोगों की तरह वे भी साधारण मनुष्य थे । रवींद्रनाथ टागोर, रामकृष्ण परमहंस, शंकराचार्य या स्वामी विवेकानंद जैसी कोई असाधारण मानव वाली विशेषता गांधीजी के पास नहीं थी । वे एक सामान्य बालक की तरह जन्मे थे। उन्होंने सत्य, प्रेम और अंहिंसा के मार्ग पर चलकर यह संदेश दिया कि आदर्श जीवन ही व्यक्ति को महान बनाता है ।


सचमुच गांधीजी साधारण होते हुए भी असाधारण थे। यह हमारे लिए, भारतवासियों के लिए, हिन्दुस्तानियों के लिए गौरव की बात है कि राष्ट्रपिता महात्मा जैसा व्यक्तित्व बस हमारे ही देश हिन्दुस्तान में जन्मा अन्य किसी देश में नहीं। 1921 में भारतीय राजनीति के फलक पर सूर्य बनकर चमके गांधीजी की आभा से आज भी हमारी धरती का रूप निखर रहा है। उनके विचारों की सुनहरी किरणें विश्व के कोने-कोने में रोशनी बिखेर रही हैं। अगर हम ये भी मान लें की महात्मा गाँधी ने जो किया वो इस देश के लिए पर्याप्त नहीं लेकिन मित्रों.... उन्होंने लेकिन जो भी किया उसे साथ लिए बिना भारतीय आजादी के लिए स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास हम अपनी आपने वाली पीढ़ी को सुना नहीं सकते समझा नहीं सकते। आज हमारा दुर्भाग्य है की गाँधी को अपना प्रेरणास्रोत मानने वाले, उनके बताये रास्ते का अनुसरण कर गोरे अंग्रेजों से भी कही ज्यादा दुष्ट, देश को खोखला कर देने वाले भ्रष्टाचार के खिलाफ अलख जगाने वाले अन्ना हजारे को आलोचना करने वाले चन्द सत्ताधारियों की कूटनीतिकरण का शिकार होना पड़ा..... हे राम ....!


रघुपति राघव राजा राम, पतित पावन सीताराम ...!
ईश्वर, अल्लाह तेरो नाम, सबको सम्मति दे भगवान् ..!

- आपका रतन प्रकाश

राष्ट्रीय सेना के संस्थापक को शत....शत नमन

सुभाष चन्द्र बोस जयंती 23 जनवरी पर विशेष
आइये इस महान दिवस पर याद करें उस महापुरुष को. जिन्होंने इस दिन जन्म लेकर हम भारतवासियों पर जो उपकार किया उसे हम भुला नहीं सकते, न ही हम भारतवासी उनके दिए उस नारे को भुला सकते हैं "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगा" ये नारा आज भी हमें अपने बचपन की तरह याद रहता है.... उन्होंने सिर्फ नारा ही नहीं दिया बल्कि अपने उस कथन को पूरा भी करके दिखाया और गोरे अंग्रेजों को भारत से पलायन करने को मजबूर कर दिया.... विवश कर दिया. नेताजी सुभाष चन्द्र बोस गुलाम भारतवर्ष को आजाद हिन्दुस्तान बनाकर, हम हिन्दुस्तानियों पर ये अहसान कर न जाने कहाँ गुम हो गए. आज उनका जन्मदिवस है, इसलिए दोस्तों ऐसे महान देशभक्त, भारतवर्ष के सच्चे महानायक, राष्ट्रीय सेना के संस्थापक, आजादी की लड़ाई के निर्भीक, निडर, जांबाज आजाद हिंदुस्तान फ़ौज के निर्माता को 
शत....शत नमन करें, उन्हें याद करें........ 
नाम की महिमा- 
दोस्तों कहते हैं की इंसान को तो बाँध कर तो रखा जा सकता है लेकिन तूफ़ान को बांधना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है.....ऐसे तूफानी शूरवीर थे आजाद बाबू .......१९४० में आजादी से पहले क्रान्तिकारियों ने अंग्रेजों के नाम में दम कर दिया था पर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस तो अंग्रेजों के लिए साक्षात मुसीबत थे। “सुभाष” नाम सुनते ही अंग्रेजों के कान खड़े हो जाते थे, चाहे वह “सुभाष” नाम का व्यक्ति कोई भी क्यों न हो, बस नाम सुनते ही अंग्रेजी प्रशासन अपने सारे अमले को सतर्क कर दिया करता था। “सुभाष” नाम से अंग्रेजों के इतना घबराने का कारण भी था, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने एक नहीं बल्कि अनेक बार भेष बदल कर अंग्रेजी प्रशासन को छकाया था। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के झंडे में न तो गाँधी जी का चरखा होता था न ही अशोक का चक्र. उनके झंडे में शेर की छवि अंकित रहती थी, वास्तव में शेर सा जिगर रखने वाले थे नेताजी...

अगर गाँधी जी मान जाते ......
1938 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हरिपुरा में होने का तय हुआ था। इस अधिवेशन से पहले महात्मा गाँधी ने कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए सुभाषबाबू को चुना। यह कांग्रेस का 51 वां अधिवेशन था। इसलिए कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष चन्द्र बोस का स्वागत 51 बैलों द्वारा खींचे हुए रथ में किया गया था। इस अधिवेशन में सुभाष चन्द्र बोस का अध्यक्षीय भाषण बहुत ही प्रभावी हुआ। किसी भी भारतीय राजकीय व्यक्ती ने शायद ही इतना प्रभावी भाषण कभी दिया हो। खास बात यह है की गाँधीजी ने कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए सुभाषबाबू को चुना तो था, मगर महात्मा गाँधीजी को सुभाष चन्द्र बोस की कार्यपद्धती पसंद नहीं आयी। इसी दौरान युरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल छा गए थे। सुभाषबाबू चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर, भारत का स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र किया जाए। उन्होने अपने अध्यक्ष पद रहते इस तरफ कदम उठाना भी शुरू कर दिया था। गाँधीजी इस विचारधारा से सहमत नहीं थे और उन्होंने उन्हें अध्यक्ष पद से हटा दिया.. साथ ही उनका विकल्प ढूँढने लगे. 1939 में जब नया कांग्रेस अध्यक्ष चुनने का वक्त आया, तब सुभाषबाबू चाहते थे कि कोई ऐसा व्यक्ति अध्यक्ष बनाया जाए, जो इस मामले में किसी दबाव के सामने न झुके। दुर्भाग्य की इस प्रकार का कोई अन्य व्यक्ती सामने न आने पर, सुभाषबाबू ने खुद कांग्रेस अध्यक्ष बने रहना मंशा प्रकट की लेकिन महात्मा गाँधी अब उन्हे अध्यक्ष पद से हटाना चाहते थे। गाँधीजी ने अध्यक्ष पद के लिए पटटाभी सितार मैय्या को चुना। कविवर्य रविंद्रनाथ टैगोर ने महात्मा गाँधी को पत्र लिखकर सुभाषबाबू को ही अध्यक्ष बनाने की अनुनय-विनय की। प्रफुल्लचंद्र राय और मेघनाद सहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाषबाबू को फिर से अध्यक्ष के रूप में देखना चाहतें थे। लेकिन गाँधीजी ने इस मामले में किसी की बात नहीं मानी। वो तो बस अपनी जिद पर अड़े रहे ...... अगर वह अध्यक्ष बना दिए गए होते तो शायद देश की आज यह स्तिथि न होती.....!

जब हिटलर ने माफ़ी मांगी नेताजी से .....!
बर्लिन में सुभाषबाबू सर्वप्रथम रिबेनट्रोप जैसे जर्मनी के अन्य नेताओ से मिले। उन्होने जर्मनी में भारतीय स्वतंत्रता संगठन और आजाद हिंद रेडिओ की स्थापना की। इसी दौरान सुभाषबाबू, नेताजी नाम से जाने जाने लगे। 29 मई, 1942 के दिन, सुभाषबाबू जर्मनी के सर्वोच्च नेता एडॉल्फ हिटलर से मिले। लेकिन हिटलर को भारत के विषय में विशेष रूची नहीं थी। उन्होने सुभाषबाबू को सहायता का कोई स्पष्ट वचन नहीं दिया। उस दौरान हिटलर ने माईन काम्फ नामक अपना आत्मचरित्र आधारित किताब लिखी। इस किताब में हिन्दुस्तानियों और हिन्दुस्तान की आलोचना की गयी थी। इस विषय पर सुभाषबाबू ने हिटलर से अपनी नाराजी व्यक्त की। हिटलर ने अपने किये पर माँफी माँगी और माईन काम्फ की अगली आवृत्ती से वह परिच्छेद निकालने का वचन दिया।

कहाँ तुम चले गए.......
18 अगस्त, 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मांचुरिया की तरफ जा रहे थे। इस सफर के दौरान वे लापता हो गए। इस दिन के बाद वे कभी किसी को दिखाई नहीं दिये। इस दुर्घटना के 5 दिन बाद खबर मिली की नेताजी का हवाई जहाज ताइवान की भूमि पर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था और उस दुर्घटना में बुरी तरह से घायल होकर नेताजी ने अस्पताल में अंतिम साँस ले ली थी।
स्वतंत्रता के पश्चात, भारत सरकार ने इस घटना की जाँच करने के लिए, 1956 और 1977 में दो बार एक आयोग को नियुक्त किया। दोनो बार यह नतिजा निकला की नेताजी उस विमान दुर्घटना में ही मारे गये थे। लेकिन जिस ताइवान की भूमि पर यह दुर्घटना होने की खबर थी, उस ताइवान देश की सरकार से तो, इन दोनो आयोगो ने बात ही नहीं की।
1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बनाया गया। 2005 में ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बता दिया कि 1945 में ताइवान की भूमि पर कोई हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीं था। 2005 में मुखर्जी आयोग ने भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट पेश की, जिस में उन्होने कहा, कि नेताजी की मृत्यु उस विमान दुर्घटना में होने का कोई सबूत नहीं हैं। लेकिन भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया।
18 अगस्त, 1945 के दिन नेताजी कहाँ लापता हो गए और उनका आगे क्या हुआ, यह भारत के इतिहास का सबसे बडा अनुत्तरित रहस्य बन गया हैं। देश के अलग-अलग हिस्सों में आज भी नेताजी को देखने और मिलने का दावा करने वाले लोगों की कमी नहीं है। फैजाबाद के गुमनामी बाबा से लेकर छत्तीसगढ़ के रायगढ़ तक में नेताजी के होने को लेकर कई दावे हुये हैं लेकिन इनमें से सभी की प्रामाणिकता संदिग्ध है। छत्तीसगढ़ में तो सुभाष चंद्र बोस के होने को लेकर मामला राज्य सरकार तक गया। हालांकि राज्य सरकार ने इसे हस्तक्षेप योग्य नहीं मानते हुये मामले की फाइल बंद कर दी।

अफ़सोस की बातें .......
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ‘बोल्‍ड और बेलाग टिप्‍पणी करने वाले शख्‍स थे। यहां तक कि वह महात्‍मा गांधी से भी सवाल कर देते और उन्‍होंने गांधी जी की राय से असहमत होने की हिम्‍मत दिखाई।’ जहाँ तक मुझे जानकारी है हमारी राजधानी दिल्‍ली में कोई भी ऐसी जगह नहीं है जिसका नामकरण नेताजी पर हुआ हो। यह बेहद शर्म और अफ़सोस की बात है की उनके जन्मदिवस पैर राष्ट्रीय छुट्टी भी घोषित नहीं की गई है...! देश की वर्तमान सरकार को इस ओर सकारात्मक कदम उठाने चाहिए ..... ताकि दीर्घकाल तक हमारे इर्द गिर्द और मानस पटल पर नेताजी की यादें जिन्दा रहे ..... जय हिंद ...... जय भारत ....!